आज प्रमुख हिंदी कवि रामधारी सिंह ' दिनकर ' की जयंती (23.09.1908)

                                               ( जऩ्म : 23.09.1908 -निधन:  23.02.1974 )

         दिनकर जी हिंदी साहित्य में एक प्रमुख कवि ,लेखक एवं निबंधकार थे । उनका का जऩ्म बिहार के बेगुलसराय जिले के सिमरिया गाँव में हुआ था । आपने पटना विश्वविद्यालय से इतिहास एवं राजनीति शास्त्र लेकर बी.ए. किया । बिहार सरकार में कुछ पदों मे् काम करने के बाद, मुजफ्फरपुुर कालेज में हुिंदी विभागाध्यक्ष बने । तदुपरांत भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति का पद स्वीकार किया । उसके बाद दिनकर जी भारत सरकार के हिंदी सलाहदार के रूप में अपनी सेवाएँ प्रदान किया । आपने  संसद की राज्यसभा के सदस्य के रूप में भी 12 साल रहे । 1959 में आप  ' पद्म विभूषण  '   के रूप में  माननीय राष्ट्रपति डा राजेंदंप्रसाद से सम्मानित किए गए । 

        दिनकर भारत स्वतंत्रती प्राप्त करने के पहले क्रांतिकारी कवि के ऱूप में रहे । स्वतंत्रती प्राप्ति के बाद राष्ट्र कवि बने । कुरुक्षेत्र एवं ऊर्वशी उनकी उत्कृष्ट कृतियाँ हैं ।   1972 में  '  उर्वशी  '   के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला ।  1959 में उऩ्हे  ' संस्कृति के चार अध्याय   ' के लिए साहित्य अकादमी   पुरस्कार मिला ।

     दिनकर जी की रचनाओं में प्रगतिवादी विचारधारा के अलादा जीवन के सभी महत्वपूर्ण पक्षों की अभिव्यक्ति भी मिलती है ।

उनकी प्रमुख रचनाएँ  :- 

काव्य  :  रेणुका, हुंकार, नीलकामल,  कुरुक्षेत्र, रश्मिरथि, उर्वशी, हारे को हरिनाम,                                                                                                                                                                                           निबंध : संस्कृति के चार अध्याय, काव्य की भूमिका, मिट्टी की ओर   आदि ..

 '  उर्वशी  ' काव्य में परूरवा से कही गयी कुछ बातें ..

मर्य मानव की विजय का तूर्य मैं,

उर्वशी .अपने समय का सूर्य हूँ मैं 

अंध तम के भाल पर पावक जलाता हूँ, 

बालकों के शीश पर पावक जलाता हूँ,

मर्त्य नर को देवता कहना मृषा है,

देवता शीतल, मनुज अंगार है ।

रश्मिरथि  में कर्ण  के बारे मे -

जिसके पिता सूर्य थे, माता कुंती कुमारी

उसका पलना हुआ धार पर बहती हुई पिटारी

सैत वंश में पला, चखा भी नहीं जननी का क्षीर

निकला कर्ण सभी युवकों में तब भी अद्भुत वीर

तन से समरशूर, मन से भावुक, स्वभाव से दानी,

जाति-गोत्र का नहीं, शील का, पौरुष का अभिमानी

ज्ञान-धयान, शस्त्रास्त्र्र , शास्त्र का कर सम्यक अभ्यास

अपने   गुण का  किया कर्ण ने आप स्वयं सुविकास ।

 









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